SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ २३७ इन्द्रिनिके विषमैं न पागै औ परिग्रह, पिशाच दोनों भांति तिन्हें त्यागै धीर धरिक ॥ सहज स्वरूपमें ही लीन सुखसैन मानो, करम कपाटको उघारै जोर भरिकै । ताहीको जिनिंद मुक्त साधक बखानतु हैं, सोई शुद्ध साध ताहि बंदों भर्म हरिकै ॥१०२॥ दोहा । ऐसे सुपरविवेकजुत, सैं शुद्ध जे साध । मोखतत्त्वसाधक सोई. वर्जित सकल उपाध ॥१०३॥ (४) गाथा-२७४ उन शुद्धोपयोगीको सर्व मनोरथके स्थानके रूपमें अभिनन्दन (प्रशंसा)। मनहरण । शुद्ध वीतरागता सुभावमें जु लीन शिव, -साधक श्रमन सोई मुनिपदधारी है । ताही सु विशुद्ध उपयोगीके दरश ज्ञान, . भापी है जथारथपनेसों विसतारी है । फेर ताही शुद्ध मोखमारगी मुनीशहीके, निरावाध मोखकी अवस्था अविकारी है । सोई सिद्धदशामें विराजै ज्ञानानन्दकन्द, निरद्वन्द वृन्द ताहि बंदना हमारी है ॥१०॥ दोहा। मोक्षतत्वसाधन यही, शुद्धपयोगी साध । सकलमनोरथसिद्धिप्रद, शुद्ध सिद्ध निरबाध ॥१०५॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy