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________________ प्रवचनसार विशेष वर्णन। चौपाई। दरवनिको गुनपरजयरूप । जो परिनाम होत तद्रूप । ताको नाम सुभाव भनन्त । सो धुव-उतपत-वयजुत तंत ॥ ३२ ॥ एक दरवके जथा कहेस । चौड़े सूक्ष्म अनेक प्रदेश । त्यों प्रनवनरूपी परवाह | लंबाई क्रमसहित अथाह ॥ ३३ ॥ मनहरण । दनिके परदेश चौड़ाई समान कहे, ___ जाते ये प्रदेश सदाकाल स्थायीरूप हैं। पर्नत प्रवाह ताकी क्रमहीत होत तातें, ___ लम्बाई समान याको सुगुरु प्ररूप हैं । जेते हैं प्रदेश ते ते निज-निज थानहीमें, पुम्बकी अपेच्छा उतपन्नमान भूप हैं। आगेकी अपेच्छा व्ययरूप औ दरव एक, सर्वमाहि यातें ध्रुव अचल अनूप है ॥ ३४ ॥ दोहा । या प्रकार परदेशको, उतपत-वय-ध्रुव जान । जथाजोग सरधा धरो, अब सुन और वखान ॥ ३५ ॥ मनहरण । जैसे परदेशनिको त्रिधारूप सिद्ध करी, तैसे परिनामहूको ऐसे भेद कहा है । पहिले समैके परिनाम उतपादरूप, पीछेकी अपेच्छा सोई वयभाव गहा है ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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