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कविवर वृन्दावन विरचित
सदा एक दर्वके अधार परवाह वहै, ___ तातै द्रव्य द्वारतें सो ध्रौव्य सरदहा है। ऐसे उतपाद-वय-धुवरूप परिनाम, ___ दर्वको सुभाव निरुपाय सिद्ध लहा है ॥ ३६॥ . जैसे मुकताफलकी माला सूतमाहि पोयें,
तेजपुंज मंजु नाना मोतिनिकी दाना है । पुत्र-पुत्र दानेकी अपेच्छा आगे आगेवाले,
उतपाद पाछेवाले वयकरि माना है ॥ एकै सूत सर्वमाहिं तासकी अपेच्छा धुव,
तैसे दर्वमाहिं तीनों साधत सयाना है। ऐसे नित्यानित्य लच्छ लच्छन अबाध सधैं,
धन्य जैनवैन स्यादवाद जाको वाना है ॥३७॥ (८) गाथा-१०० उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका परस्पर
अविनाभाव दृढ़ करते हैं ।
मत्तगयन्द । अभंग विना न वनै कहुं 'संभव, संभव हू विन भंग न हो है । 0 औ निहचै विनु ध्रौव पदारथ, व्यै उतपाद कहूँ नहिं सोहै ॥
ज्यों मृतपिंडते कुंभ बने, धुव दर्व दोऊमहूँ .. एकहि हो है ।। त्यों सब दर्व निधातम लच्छन, जानत वृन्द विचच्छन जो है ॥३८॥
चौपाई। वय विनु नाहिं होत उतपादं । उतपत विना:न व्यय मरजादं । उतपत वय विनु ध्रौव्य न होई । धुव विन उतपत वय हुन जोई ॥३९॥ १. व्यय ( नाश ) । २. उत्पाद ।