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प्रवचनसार
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सत्रहीमें .फरसादि गुन, चारों हैं निरधार ।
वृन्दावन सरधा घरो, सब संशय परिहार ॥ ४४ ।। (७-८) गाथा-१३३-१३४ शेप अमूर्त द्रव्योंके गुण । है
मनहरण । एके काल सरव दरवनिको थान दान,
कारन विशेष गुन राजत अकासमें । धरम दरवको गमन हेत कारन है,
जीव पुदगलके विचरन विलासमें ।। अधरम दर्वको विशेष गुन थिति होत,
दोनों क्रियावंतनिके थित परकासमें । कालको सुभाव गुन वरतनाहेत करो, आतमाको गुन उपयोग प्रतिभासमें ॥ ४५ ॥
दोहा । ऐसे मूरतिरहितके, गुन संक्षेप भनंत । वृन्दावन तामें सदा, हैं गुन और अनंत ॥ ४६॥ जो गुन जासु सुभाव है, सो गुन ताहीमाहिं । औरनिके गुन औरमें, कबहूं व्यापैं नाहिं ॥ ४७ ॥ नमको तो उपकार है, पांचोपर सुन मीत । धर्माधर्मनिको लसै, जिय पुदगलसों रीत ।। ४८ ।। काल सबनिपै करतु है, निज गुनते उपकार । नव जीरन परिनमनको, यात होत विचार ॥ ४९ ॥