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कविवर वृन्दाधन विरचिः
जीव लखै जुगपत सकल, केवलदृष्टि पसार । याहीते सब वस्तुको, होत ज्ञान अविकार ॥ ५० ॥
(९) गाथा-१३५ प्रदेश-अप्रदेशत्व । जीवरु पुदगल काय नभ, धरम अधरम तथेस । हैं असंख परदेशजुत, 'काल' रहित परदेस ॥ ५१ ॥
मनहरण । एक जीव दर्वके असंख परदेश कहे,
संकोच विथार जथा दीपकपै ढपना । पुग्गल प्रमान एक अप्रदेशी है तथापि,
मिलन शकतिसों बढ़ावै वंश अपना ॥ धर्माधर्म अखंड असंख परदेशी नभ,
सर्वगत अनंत प्रदेशी वृन्द जपना । कालानूमें मिलन शकतिको अभाव तात,
अप्रदेशी ऐसे जानें मिटै ताप तपना ॥ ५२ ॥ (१०) गाथा-१२६ वे द्रव्य कहाँ रहते हैं। लोक औ अलोकमें आकाश ही दरव और,
धर्माधर्म जहां लगु पूरित सो लोक है । ताही विष जीव पुदगलको प्रतीत करो,
कालकी असंख जुदी अनू हूको थोक है ॥ समयादि परजाय जीव पुदगलहीके,
परिनामनिसों परगटत सुतोक है ।