SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ ५९ अथवा छयोपशममन्दता भयेते सोई, थूल मूरतीक हू न जानत किते रहै ॥ ६ ॥ दोहा । देह घरेसे आतमा, द्रव्येद्रिनिके द्वार । निकट थूल मूरत दरव; तिनको जाननिहार ॥ ७ ॥ अथवा छय उपशम धेरै, निपट निकट जे वस्त । . तिनहुँ न जानि सकै कभी, यह जगविदित समस्त ॥ ८ ॥ पंचिन्द्रिनिके विषयको, जानि अनुभवै सोय । इन्द्रियसुख सो जानियो, मूरतीकमें होय ॥९॥ यातें ज्ञानी सुख दोऊ, वसहिं सदा इक संग ।। मूरतिमाहिं मूरतिक, इतरमाहिं तदरंग ॥ १० ॥ फरस रूप रस गंध अरु, श्रवनिद्रिनिके भोग । ज्ञानद्वारतें जानिके, सुख अनुभव तपयोग ॥ ११ ॥ यात ज्ञानरु सौख्यको, अविनाभावी संग । चिद्विलासहीमें बसत, उपजहि संग उमंग ॥ १२ ॥ इन्द्रियज्ञानरु सौख्य जिमि, मूरतीकमें जान । तथा अतिन्द्रियज्ञान सुख, वसत अतिंद्रियथान ॥ १३ ॥ कहा कहों नहिं कहि सकों, वचनगम्य नहिं येह । अनुभव नयन उघारि घट, वृन्दावन लखि लेह ॥ १४ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy