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________________ ५८] कविवर वृन्दावन विरचित इन्द्रीज्ञानसुख पराधीन है विनाशिक है, ताते याको हेय जानि ऐसो गुरु कहे है । ज्ञानसुखपिंड चिनमूरति है वृन्दावन, धर्मीमें अनंत धर्म जुदे-जुदे रहे है ॥ ४ ॥ (२) गाथा-५४ अतीन्द्रिय मुखके कारणरूप __ अतीन्द्रिय ज्ञानकी उपादेयता और प्रशंसा । जाकी ज्ञानप्रभामें अमूरतीक सर्व दव, ____तथा जे अतीन्द्रीगग्य अनू पुद्गलके । तथा जे प्रछन्न द्रव्य क्षेत्र काल भाव चार, ___सहितविशेष वृन्द निज निज थलके ॥ और निज आतमके सकल विमेद भाव, ___ तथा परद्रव्यनिके जेते मेद ललके । ताही ज्ञानवंतको प्रतच्छ स्वच्छ ज्ञान जानो, जामें ये समस्त एक समेहीमें झलके ॥५॥ (३) गाथा-५५ इन्द्रियसुखका कारणस्प ज्ञान हेय है-निंद्य है । जीव है मुभावहीत स्वयंसिद्ध अमूरत, ___द्रव्य द्वार देखते न यामें कछु फेर है । सोई फेर निश्चैसों अनादि कर्मबंध जोग, ___ मरतीक दीखे जैसो देहको गहे · रहै ॥ ताही मूरतीकतें मुजोग मूर्त पदारथ, __ तिनको अवग्रहादिकते जानते रहै ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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