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________________ प्रवचनसार [५७ अथ द्वितीयसुखाधिकारः प्रारभ्यते । मंगलाचरण । चरनकमल कमला बसत, सारद सुमुखनिवास । देवदेव सो देव मो, कमला वागविलास ॥१॥ श्रीसरवज्ञ प्रनाम करि, कुन्दकुन्द मुनि वंदि । वरनों सुखअधिकार अब, भवि उर-भरम निकंदि ॥ २॥ (१) गाथा-५३ कौनसा ज्ञान, सुख और हेय उपादेय है ? मनहरण । 'अर्थनिकेमाहिं जो अतीन्द्रीज्ञान राजत है, सोई तो अमूरतीक अचल अमल है । बहुरि जो इन्द्रिय जनित ज्ञान उपजत, सोई मूरतीक नाम पावत समल है ॥ ताही भांति सुखहू अतीन्द्री है अमूरतीक, इन्द्रीसुखमूरतीक सोऊ न विमल है। दोऊमें परम उतकृष्ट होय गहो ताहि, सोई ज्ञान सुख शिवरमाको .कमल है ॥ ३ ॥ अतीन्द्रियज्ञान सुख आतमसुभाविक है, एक रस सासतो अखण्ड धार बहै है । शत्रुको विनाशिके उपज्यो है अवाधरूप, . __ सर्वथा निजातमीक-धर्मको गहै है ॥ १. पदार्थोमें।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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