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________________ ५६ ] कविवर वृन्दावन विरचित तिन्हैं परवस्तुके न जानिवेकी इच्छा होत, ___ जाते तहाँ मोहादि विभावकी भगन है । तातै पररूप न प्रनवै न गहन करे, ___ पराधीन ज्ञानकी न कबहूँ जगन है ॥ ताहीत अबंध वह ज्ञानक्रिया सदाकाल, आतमप्रकाशहीमें नासकी लगन है ॥२२६ ॥ दोहा । क्रिया दोइ विधि वरनई, प्रथम प्रज्ञप्ती जानि । ज्ञेयारथ परिवरतनी, दूजी क्रिया वखानि ॥ २२७ ॥ अमलज्ञानदरपन वि., ज्ञेय सकल झलकंत । प्रज्ञप्ती है नाम तसु, तहां न बंध लसंत ॥ २२८ ॥ ज्ञेयारथ परिवरतनी, रागादिकजुत होत । जैसो भावविकार तहँ, तैसो बंधउदोत ॥ २२९ ॥ पद्धतिका-पद्धड़ी। (अधिकारान्त मंगल) ज्ञानाधिकार यह मुकतिपंथ । गुरु कथी सारश्रुतिसिंधु मंथ ।। मुनि कुदकुंदके जुगल पांय । वृन्दावन वन्दत शीस नाय । इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी वृन्दावनकृत भाषामें प्रथम ज्ञानाधिकार पूरा भया । ASHOMEZAGALIZAZAEREASIZEDAZOLICIZE5:37AMZ6352252CTICARCIRZZX23:2033zczzes. POOR १. (फ प्रतिमें) " मिती कार्तिक कृष्णा १४ चौदश संवत् १९०५ वुधवारे (ख प्रतिमें) संवत् १९०६ चैत्र शुक्ला पूर्णमास्याम् मन्दवासरे।" इस प्रकार लिखा है । HOM / E
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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