SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ ५५ (५१) सर्वज्ञ ज्ञानकी महिमा मनहरण । तिहूँकालमाहिं नित विषम पदारथ जे, ____सर्व सर्वलोकमें विराजे नाना रूप है। एकै बार जानै फेरि छाँडै नाहिं संग ताको, ___ 'संगकी सी रेखा तथा सदा संगभूप है ॥ अमल अचल अविनाशी ज्ञानपरकाश, सहज सुभाविक सुधारसको कूप है। श्री जिनिंददेवजूके ज्ञान गुन छायककी, ___ अहो भविवृन्द यह महिमा अनूप है ॥ २२४ ॥ कोऊ मूरतीक कोऊ मूरतिरहित द्रव्य, ___ काहुके न काय कोऊ द्रव्य कायवंत है । कोऊ जरूप कोऊ चिदानंदरूप याते, __सर्व दर्व सम नाहिं विषम भनंत है ॥ तिनके त्रिकालके अनंत गुनपरजाय, नित्यानित्यरूप जे विचित्रता धरंत है । सर्वको प्रतच्छ एक समैमें ही जाने ऐसे ___ ज्ञानगुन छायककी महिमा अनंत है ॥ २२५॥ सर्वज्ञतारूप ज्ञप्तिक्रिया होने पर भी वन्धनका अभाव मनहरण । शुद्ध ज्ञानरूप सरवंग जिनभूप आप, सहज-सुभाव-सुखसिंधुमें मगन है ॥ १. पत्यरकी रेखा। ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy