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________________ १४८ ] कविवर वृन्दावन विरचित (१८) गाथा-१६३ परमाणुओं मिलकर पिंडरूप पर्याय । अप्रदेशी अनू परदेशपरमान दर्व, सो तो स्वयमेव शब्द-'परजरहत है । तामै चिकनाई वा रुखाई परिनाम बस, सोई बंध जोग भाव तासमें कहत है ॥ ताहीसेती दोय आदि अनेक प्रदेशनिकी, . दशाको बढ़ावत सुपावत महत है । ऐसे पुदगलको सुपिंडरूप खंध बँधे, यासों चिदानंदकंद जुदोई लहत है ॥३४॥ दोहा। अविभागी परमानु वह, शुद्ध दरव है सोय । वरनादिक गुन पंच तो, सदा धेरै ही होय ॥३५॥ एक वरन इक गंध इक, रस दो फासमझार । अंतर मेदनिमें धरे, श्रुति लखि लेहु विचार ॥३६॥ (१९) गाथा-१६४ परमाणुके स्निग्ध-रूक्षत्व कैसा । मनहरण । पुग्गलअनूमें चिकनाई वा रुखाई भाव, एक अंश” लगाय भाषे मैदरास है। एकै एक बढ़त अनंत लौं विभेद बढ़े, जातै परिनामकी शकति ताके पास है ॥ जैसे छेरी गाय भैंस ऊंटनीके दूध घृत, तामें चिकनाई वृद्धि क्रमः प्रकास है । १. पर्याय-रहित । २. स्पर्शमें । ३. पुद्गलाणुमें ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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