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________________ १५६ ] कविवर वृन्दावन विरचित MAHEMAR ALLACh2RNALISMALLIATRAMMCalchhanep तिनको मल्पी जीव देते जाने भलीभांत, यह तो मवाघ सिद्ध प्रान्छ प्रनानसों ॥ जो न होत अल्प वन्त यह मान्मा तौ, कैसे ताहि देखती औ जानन महानों । वैसे ताके वंचको विधान हू मुजानी बन्द, सनिल मिलाप ज्यों "शबद जुरे कानसों" |७.1 दोहा । देखन जाननकी शाति, जो न जीवनहँ होत । तब निहि विवि संसारमें, वचन होत उदोन ७१| मोह राग ल नावारि, देवत जानत जीव 1 . नाही मात्र विकारों, आयु हि बंधन सदीत्र ७२॥ राग चिकनाई नई, दोष रच्छता माय । बाहीके सुनिमित्ता, पुद्गलमान बघाय १७३!! आत्मके परदेश प्रति, दक्ति कर्म अनाद । तिनसों नूतन मननो, वंव परत निवाद । ७४ यह विवहारिक बंधविधि, निहत्रे व न सोय । जहूँ अशुद्ध उपयोग है, नोइ त्रिकंटक जोय !७ मनहरण । जैसे वाल्वालगन के सांचे नाटीनिके, देति जानि तिन्हें अपनाये राग जोगनों । तिनके निकट कोऊ नार लोरै बेलनिनो. तवे ते अधीर होय रौवें वो शोरों ! तहां अब भो तो विचार मेवज्ञानी वृन्द, __ ये बयल सोड़ी नमनाकी डोरमों । a lner -un-GMAKADAMOMESTINGHAATHMAND
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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