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फविवर वृन्दावन विरचित
परप्राननिको घात तौ, होहु तथा मति होहु ।। पै निज ज्ञान-प्रान तिन, निहचै घाते सोहु ॥ ११ ॥ तव ज्ञानावरनादि तहँ, वर्धे करम दिन आय । ।
प्रकृति प्रदेशनुभाग थिति, जथाजोग समुदाय ॥ १२ ॥ (६) गाथा-१५० प्राणों की संततिकी प्रवृत्तिका अंतरंग हेतु ।
मत्तगयन्द । कर्म महामलसों जगमें, जगजीव मलीन रहै तब ताई । चार प्रकारके प्राननिको, वह धारत वार हि बार तहाई ॥ जावत देह प्रधानविपैं, ममता-मतिको नहिं त्याग कराई । या विधि बंधविधान कथा, गुरुदेव जथारथ वृन्द बताई ॥१३॥
दोहा । पजावत ममता भाव है, देहादिककेमाहि ।
तावत चार सुपान धरि, जगतमांहि भरमाहिं ॥ १४ ॥ तातें ममताभावको, करो सरवथा त्याग । निज समतारसरंगमें, वृन्दावन अनुराग ॥१५॥ (७) गाथा-१५१ उनकी निवृत्तिका अंतरंग हेतु ।
मतगयन्द । जो भवि इन्द्रियआदि विजैकरि, ध्यावत शुद्धपयोग अभंगा । कर्मनिसों तजि राग रहै, निरलेप जथा जल कंज प्रसंगा ॥
झांक-विहीन जथा फटिकप्रभ, त्यों उर जोतकी वृन्द तरंगा ।। क्यों मल प्रान बँधै वह तो, नित न्हात विशुद्ध सुभाविक गंगा ॥१६॥ १. यावत्-जब तक । २. तावत्-जब तक । ३. कमल । ४. छायारहित।