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________________ प्रवचनसार [१४१ (४) गाथा-१४८ उनकी सिद्धि . मनहरण । अनादित पुग्गल प्रसंगसों चिदंगजूके, चढ्यो है कुढंग मोह रंग सरवंग है । -ताही कर्मबंधों निबद्ध चार प्राननिसों, कर्मनिको उदैफल भोगै बहुरंग है । तहां और नूतन करमको प्रबंध बधै, जाते मोह रागादि कुभावको तरंग है । ऐसे पुग्गलीक कर्म उदै जगजीवनिके, पुग्गलीक कर्मबंध उदैको प्रसंग है ॥ ७ ॥ दोहा । कारनके साहश जगत, कारज होत प्रमान । तातै पुदगल करमकरि, पुदगल वैधत निदान ॥ ८॥ (५) गाथा-१४९ उसे पौद्गलिक कर्मका कारणत्व । मिला। . जगजीव निरंतर मोहरु दोष, कुभाव विकारनिको करिकै । परजीवनिके चहु प्राननिको, 'विनिपात करें 'अदया धरिकै ॥ तबही निह हद कर्मनिसों, प्रतिबंधित होहिं मुधा भरिकै ।। जसुं भेद हैं ज्ञान-अवनको आदिक, यो लखिये भ्रमको हरिकै ॥९॥ दोहा। मोहादिककरि आपनो, करत अमलगुन घात ।। ता पीछे परप्रानको, करत मूढ़ विनिपात ॥१०॥ १. घात-नाश। २. निर्दयता-कठोरता। ३. ज्ञानावरणादि। .
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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