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प्रवचनसार
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(४) गाथा-१४८ उनकी सिद्धि .
मनहरण । अनादित पुग्गल प्रसंगसों चिदंगजूके,
चढ्यो है कुढंग मोह रंग सरवंग है । -ताही कर्मबंधों निबद्ध चार प्राननिसों,
कर्मनिको उदैफल भोगै बहुरंग है । तहां और नूतन करमको प्रबंध बधै,
जाते मोह रागादि कुभावको तरंग है । ऐसे पुग्गलीक कर्म उदै जगजीवनिके, पुग्गलीक कर्मबंध उदैको प्रसंग है ॥ ७ ॥
दोहा । कारनके साहश जगत, कारज होत प्रमान ।
तातै पुदगल करमकरि, पुदगल वैधत निदान ॥ ८॥ (५) गाथा-१४९ उसे पौद्गलिक कर्मका कारणत्व ।
मिला। . जगजीव निरंतर मोहरु दोष, कुभाव विकारनिको करिकै । परजीवनिके चहु प्राननिको, 'विनिपात करें 'अदया धरिकै ॥ तबही निह हद कर्मनिसों, प्रतिबंधित होहिं मुधा भरिकै ।। जसुं भेद हैं ज्ञान-अवनको आदिक, यो लखिये भ्रमको हरिकै ॥९॥
दोहा। मोहादिककरि आपनो, करत अमलगुन घात ।।
ता पीछे परप्रानको, करत मूढ़ विनिपात ॥१०॥ १. घात-नाश। २. निर्दयता-कठोरता। ३. ज्ञानावरणादि। .