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कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । पंच दरव सब ज्ञेय हैं, ज्ञाता आतमराम । सो अनादि चहु प्रान जुत, जगमें कियो 'मुकाम ।। ३ ।।
(२) गाथा-१४६ प्राण । इन्द्रीवल तिमि आयु पुनि, सासउसासरु प्रान । जीवनिके संसारमें, होहिं सदीव प्रमान || ४ ..
छप्पय । 'फास जीभ नासिका, नैन श्रुति पंच अच्छ गहु । काय वचन मन सु बल, तीन परतीति मान यहु ॥ आयु चार गति थिति, तथैव सासो उसास गनि ।
ये दशहूं विवहार-प्रान, जग जीवनिके भनि । निहचैकरि सुख सत्ता तथा, अयोधन चैतन्नता ।। यह चार प्रान धारै सदा, सहज सुभाव अमिन्नता । ५॥ (३) गाथा-१४७ प्राणोंको जीवत्वका हेतुत्व और
पौद्गलिन ।
मत्तगयन्द । नो जगमें निहचै करिके, धरि चार प्रकारके प्रान प्रधानो । जीवतु है पुनि जीवत थौ, अरु आगे हु मैं वही जीवे निदानो ।। सो वह जीव पदारथ है, चिनमूरति आनंदकंद सयानो ।
औ 'चहु प्रान कहे वह तो, उपजे सब पुग्गलत परमानो ॥६॥ १ स्थिति । २ स्पर्श । ३ अक्ष-इन्द्रियं । ४. चउ-चार।