SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ ] कविवर वृन्दावन विरचित यह आतम जानत सुपरको, ज्ञान वृन्द परकाश धर ।। परिनामरूप सनबंध है, ज्ञाता ज्ञेय अनादिकर ॥ १६१॥ जदपि होय नट निपुन, तदपि निजकंध चढे किमि । तिमि चिनमूरति ज्ञेय, लखहु नहिं लखत आप इमि || यों संशय जो करै, तासुको उत्तर दीजे । सुपर प्रकाशकशक्ति, जीवमें सहज लखीजे ॥ जिमि दीप प्रकाशत सुघटपट, तथा आप दुति जगमगत । तिमि चिदानंद गुन वृन्दमें, स्वपरप्रकाशक पद पगत ॥ १६२ ।। चौपाई। हैं ज्ञेय त्रिधातमको यह अर्थ । भाषा श्रीगुरुदेव समर्थ ॥ है भूत अनागत वरतत जेह । परजय भेद अनंते तेह ॥ १६३ ।। है अथवा उतपतिव्ययध्रुवरूप । तथा द्रव्यगुनपरज. प्ररूप ॥ सुपर ज्ञेयके जे ते भेद । सो सब जानत ज्ञान अखेद ॥ १६४ ॥ है ज्ञानरूप . अरु ज्ञेयस्वरूप । द्रव्यरूप यह है चिद्रूप ॥ है और पंच जड़वर्जित ज्ञान । सदा ज्ञेयपद धरै निदान ॥ १६५॥ है आतमज्ञान जोतिमय स्वच्छ । स्वपर ज्ञेय तहँ लसत प्रतच्छ । हैं वंदो कुन्दकुन्द मुनिराय । जिन यह सुगम- सुमग दरसाय ॥ १६६ ॥ है (३७) द्रव्योंकी भूत-भावी पर्यायें भी वर्तमानवत और ज्ञानमें : पृथक्-पृथक् ज्ञात होती है । मनहरण:! . जेते परजाय षद्रव्यनके होय गये, अथवा भविष्यत जे सत्तामें विराजें हैं । . है. ते ते सब भिन्न भिन्न सकल विशेषजुत, शुद्ध ज्ञान भूमिकामें ऐसे छबि छाजें हैं । AMMMM M
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy