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कविदर वृन्दावन विरचित
(१०) नाया-६२ कंवलियोंके ही पारमार्थिक
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नावी। है जिनको यह बानियक्रम विधानिक, केवल जोति अनन्त फुरी है । है उखने उजनिष्ट अतीन्द्रिय सौन्थ्य, निन्, मन्वंग ममंग पुरी है । हैं जिसनो न अमत्र्य प्रतीत करें, पुनि दूर हु मध्यकी बुद्धि दुरी है । है यह बात कही शरवा परि हैं, जिनके मक्की यिनि आनि जुरी है। ३०॥
दोहा। इन्द्रीमुखजुन मुक्ति ने, नानहिं मह अयान । तिनको मत अनन्दंड रि, श्रीगुरु हनी निशान ॥ ३१ ।। (११) गाया-६३ अपारमार्थिक इन्द्रियमुख ।
मावनी । नर इन्द्र सुगर इन्द्रनिको, सहजे जब इन्द्रियरोग सजावे । तब पीड़ित होनर गोगनको, नित मोग मनोगननाहिं ना ॥ तहाँ चाहकी वाह नवीन वई, वृतआहुनिमें जिनि आगि जगावे । सहजानंद व विलस विना, नहिं मोशने सो प्यास बुझाने ।
हा । वर्गविमें इन्द्रादिको इन्द्रियमुन्न भरपूर । लोउ द बाधासहित, सहजानने दूर .। ३३ ॥ चा इन्त्रीजनित सुद्ध हेयल्प पहिचान । ज्ञानानन्द अनच्चमुत, करो मुबारस पान ॥ ३४ ॥
४ १. इन्द्रियों को । २. मनोज । ३. त्याव्य ।