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________________ प्रवचनसार [६५ (१२) गाथा-६४ इन्द्रियोंके आलंवनमें स्वाभाविक दुःख ही है। पट्पद । . जिन जीवनिको विषयमाहि, रतिरूप भाव है । तिनके उरमें सहज, दुःख दीखत जनाव है ॥ जो सुभावतें दुःखरूप, इन्द्री नहिं होई । तो विषयनिके हेत, करत. व्यापार न कोई ॥ _ 'करि 'मच्छ द्विरेफ "शलभ, हरिन, विषयनि-वश तन परहरहिं । यातें इन्द्रीसुख दुखमई, कही सुगुरु भवि उर धरहिं ॥ ३५॥ (१३) गाथा-६५ सिद्धभगवानको शरीर विना भी सुख है, संसारदशामें शरीर सुखका साधन नहीं । मनहरण । संसार अवस्थामें विभाव सुभावहीसों, यही जीव आप सुखरूप छवि देत है । जाते पंच इन्द्रिनिको पायकै मनोग भोग, ताको रस ज्ञायक सुभावहीसों लेत है । देह तो प्रगट जड़ पुग्गलको पिंड तामें, ज्ञायकता कहां जाको सुभाव अचेत है । ताते जक्त मुक्त दोऊ दशामाहिं वृन्दावन, . सुखरूप भावनिको आतमा निकेत है ॥ ३६॥ - - १ त्याज्य । २ हाथी । ३ मछली । ४ प्रमर । ५ पतंग । ६ भव्यजीव ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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