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________________ कविवर वृन्दावन विरचित (१४) गाथा-६६ यही बात दृढ़ करते हैं। सर्वथा प्रकार देवलोकहूमें देखिये तो, देह ही चिदातमाको सुख नाहिं करै है । जद्दपि सुरग उतकिष्ट भोग उत्तम औ, वैक्रियक काय सर्व पुण्य जोग मरै है ॥ तहाँ विषयनिके विवश भयो जीव आप, आप ही सुखासुखादि भावनि आदरै है । ज्ञायक सुभाव चिदानंदकंदहीमें वृन्द, ' ताँत चिदानंद दोऊ दशा आप धरै है ॥ ३७॥ है १५) गाथा-६७ जीव स्वयमेव सुख परिणामकी शक्तिवान् होनेसे विपयोंका अकिंचनत्व । चौबोला। जिन जीवनिकी तिमिर हरनकी, जो सुभावसों दृष्टि.... ।। तौ तिनको दीपक प्रकाशतें, रंच प्रयोजन नाहिं चहै ॥ तैसे सुखसुरूप यह आतम, आप स्वयं सरवंग लहै ।। तहाँ विषय कहा करहिं वृन्द जहँ, सुधा सुभाविकसिंधु बहै ॥३८॥ (१६) गाथा-६८ आत्माका सुखस्वभाव है-दृष्टान्त । मत्तगयन्द । है ज्यों नभमें रवि आपुहितै, धरै तेज प्रकाश तथा गरमाई । हैं देवप्रकृत्ति उदै करिकै, इस लोकविपैं वह देव कहाई ॥ है ताही प्रकार विशुद्ध दशा करि, सिद्धनिके मुनिवृन्द बताई । ज्ञानरु सौख्य लसे सरवंग, सो देव अभंग नमों सिरनाई ॥३९॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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