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________________ १५० ] कविवर घृन्दावन विरचित NM एक अनू इक अंशजुन, दुतिय तीनजुत होय । जदपि जोग है बंधके, तदपि बंधैं नहिं सोय । ४३॥ एक अंश अति जघन है, सो नहिं बंधै कदाप । नेमरूप यह कथन है, श्रीजिन भापी आप ॥१४॥ (२१) गाथा-१६६ वही नियम । मनहरण । चीकन सुभाव दोय अंश परनई अनू, ताको बंध चार अंशवालीहीसों होत है । और जो रुग्वाई तीन अंश अनू धारे होय, पंच अंशवालीसेती बाको बंध होत है । ऐसे ही अनंत लगु भेद सम विषमके, दोय अंश अधिकतै बंधको उदोत है । रुच्छचीकनीहू बँधै खधहूसों खंध बँधै, याही रीतिसेती लखें ज्ञानी ज्ञान जोत है ॥४५|| दोहा। चीकनकी सम अंशतै, विषम अंशतै रुच्छ । दोय अधिक होतें बँधैं, पुग्गलानुके गुच्छ ॥४६॥ चीकनता गुनकी अनू, पांच अंशजुत जौन । सात अंश चीकन मिलै, बंध होतु है तौन ॥४७॥ चार अंशत्रुत रुच्छसों, षट जुतसों बँध जात । यही भांति अनंत लगु, जानों भेद विख्यात ॥४८॥ दोय अनू अंशनि गिनें, होहिं बराबरं जेह । ताको बँध बँधै नहीं; यों जिनवैन · भनेह ॥४९॥ . .
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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