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________________ प्रवचनसार [ १५१ (२२) गाथा-१६७ आत्माका उनका कर्तापनाका अभाव है। छप्पय । दो प्रदेश आदिक अनंत, परमानु खंध लग । सूच्छिम बादररूप, जिते आकार घरे जग ॥ तथा अवनि जल अनल, अनिल परजाय विविधगन । ते सब निग्ध रु रुच्छ, सुभावहित उपजे भन ॥ यह पुदगलदरवरचित सरव, पुग्गल करता जानिये । चिनमूरति यात मिन्न है, ताहि तुरित पहिचानिये ॥५०॥ (२३) गाथा-१६८ आत्मा उसको लानेवाला भी नहीं है। मनहरण । लोकाकाशके असंख प्रदेश प्रदेश प्रति, कारमानवर्गना भरी है पुदगलकी । सूच्छिम और बादर अनंतानंत सर्वठौर, अति अवगादागाढ़ संधिमाहिं झलकी ।। आठ कर्मरूप परिनमन सुभाव लिये, आतमाके गहन करन जोग बलकी । तेईस विकार उपयोगको संजोग पाय, कर्मपिंड होय बंधैं रहै संग ललकी ॥५१ ।। दोहा । तातै पुदगल करमको, आतम करता नाहिं । भूल भावः जीवकै, करम धूलि लपटाहि ।। ५२ ॥ -- - - - - - - - - - - - -AAN १. स्निग्ध-चिकना ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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