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कविवर वृन्दावन विरचित
है (२४) गाथा-१६९ आन्मा उसे कर्मरूप नहिं करता।
मनहरण । कर्मरूप होनकी सुभावशक्ति गमै वसे,
ऐसे जे जगत माहिं पुग्गलके खंध हैं । तेई जब जगतनिवासी जग जीवनिके,
परिनाम अशुद्धको पा सनबंध है ॥ तबै ताई काल कर्मरूप परिन सोई,
एसो वृन्द अनादित चलो आवै धंध है । ते वै कर्मपिंड आतमाने प्रनवाये नाहिं,
पुग्गलके खंधहीसौं पुग्गलको बंध है ॥५३॥ (२५) गाथा-१७० शरीरका कर्ता आत्मा नहीं है । जे जे दर्वकर्म परिनये रहे पुग्गलके, "
कारमानवगना सुशक्ति गुप्त धरिके । तेई फेर जीवके शरीराकार होहि सब,
देहांतर जोग पाये शक्त व्यक्त करिके ॥ जैसे वटवीजमें सुभाव शक्ति वृच्छकी सो,
वटाकार होत वही शक्तिको उछरिके । ऐसे दर्वकर्म वीजरूप लखो वृन्दावन,
ताहीको सुफल देह जानों भर्म हरिके ॥५४॥ (२६) गाथा-१७१ आत्माके शरीरका अभाव है। औदारिक देह जो विराजै नरतीरकके,
नानाभांति तासके अकारकी है रचना । १. नर-तियंचके।