SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ ] कविवर वृन्दावन विरचित है (२४) गाथा-१६९ आन्मा उसे कर्मरूप नहिं करता। मनहरण । कर्मरूप होनकी सुभावशक्ति गमै वसे, ऐसे जे जगत माहिं पुग्गलके खंध हैं । तेई जब जगतनिवासी जग जीवनिके, परिनाम अशुद्धको पा सनबंध है ॥ तबै ताई काल कर्मरूप परिन सोई, एसो वृन्द अनादित चलो आवै धंध है । ते वै कर्मपिंड आतमाने प्रनवाये नाहिं, पुग्गलके खंधहीसौं पुग्गलको बंध है ॥५३॥ (२५) गाथा-१७० शरीरका कर्ता आत्मा नहीं है । जे जे दर्वकर्म परिनये रहे पुग्गलके, " कारमानवगना सुशक्ति गुप्त धरिके । तेई फेर जीवके शरीराकार होहि सब, देहांतर जोग पाये शक्त व्यक्त करिके ॥ जैसे वटवीजमें सुभाव शक्ति वृच्छकी सो, वटाकार होत वही शक्तिको उछरिके । ऐसे दर्वकर्म वीजरूप लखो वृन्दावन, ताहीको सुफल देह जानों भर्म हरिके ॥५४॥ (२६) गाथा-१७१ आत्माके शरीरका अभाव है। औदारिक देह जो विराजै नरतीरकके, नानाभांति तासके अकारकी है रचना । १. नर-तियंचके।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy