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प्रवचनसार
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तथा वैयक्रीयक शरीर देवनारकीके,
जथाजोग ताहूके अकारकी है रचना ॥ तैजस शरीर जो शुभाशुभ विभेद औ,
अहारक तथैव कारमानकी विरचना । ये तो सर्व पुग्गल दरवके बने हैं पिंड,
__ यातै चिदानंद मिन्न ताहीसों परचना ॥ ५५ ॥ (२७) गाथा-१७२ जीवका असाधारण स्वलक्षण जो
परद्रव्योंसे विभागका साधन है वह क्या है ?
चेतनालक्षणवाली अलिंग-ग्रहणकी गाथा । अहो भव्यजीव तुम आतमाको एसो जानो,
जाके रस रूप गंध फास नाहिं पाइये । शब्द परजायसों रहित नित राजत है,
अलिंगग्रहन निराकार दरसाइये ॥ चेतना सुभावहीमें राजे तिहूँकाल सदा,
आनंदको कंद जगवंद वृन्द ध्याइये । भेदज्ञान नैनते निहारिये जतनहीसों, ताके अनुभव रसहीमें झर लाइये ॥ ५६ ॥
दोहा। शब्द अलिंगग्गहन गुरु, लिख्यौ जु गाथामाहिं । कछुक अस्थ तसु लिखत हों, जुगतागमकी छांहिं ॥ ५७ ॥
१. वैक्रियक ।