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कविवर वृन्दावन विरचित
चौपाई। चिब सुपुदगलके हैं जिते । फरस रूप रस गंध जु तिते । तिन करि तासु लखिय नहि चिह । बाहूत सु आलंगरगहन ॥१८॥ अथवा तीन लिंग जगमाहिं । नारि नपुंसक नर ठहराहिं ।। ताहूकरि न लखिय तमु चिह्न । याहूत सु अलिंगरगहन ॥५१॥ अथवा लिंग जु इंद्रिय पंच । ताइकरि न लखिय तिहि रंच । अतिइन्द्रियकरि जानन सहन । य हूते सु अलिंगरगहन ॥६०॥ अथवा इन्द्रियजनित जु ज्ञान । ताकरि है न प्रतच्छ प्रमान । की है आतमको यह चिह। याहूत सु अलिंगगहन ॥६१॥ अथवा लिंग नाम यह जुप्त ! लच्छन प्रगट लच्छ जसु गुप्त । घूम अग्नि जिमि तिमि नहिं चिह्न । याहूत सु अलिंगग्गहन ॥३२॥ अथवा आनमती बहु के । दोपसहित लच्छन अन तकें । ताहकरि न लखिय तसु चिह्न । याहूते सु अलिंगरगहन ॥६॥ इत्यादिक बहु अस्यविधान । शन्द अलिंगगहनको जान । सो विशाल टीकाते देखि | पंडित मनमें दियौ विशेखि ॥६॥ यह चेतन चिद्रूप अनूप । शुद्ध सुभाव सुधारसकूप । स्वसंवेदनहिकरि सो गम्य । लखहिं अनुभवी समरसरम्य ॥६५|| शब्दवनको पाय सहाय । करि उदिम मन-वचन-काय । काललब्धिको लहि संजोग । पा निकटमव्य ही लोग ॥६६॥ तातें गुन अनंतको धाम । वचन अगोचर आतमराम । चन्दावन उर नयन उघारि । देखो ज्ञानज्योति अविकारी ॥६७॥