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________________ ९० ] कविवर वृन्दावन विरचित तैसे सर्व दर्व निज गुन परजाय तथा, ___ उतपाद व्यय ध्रुव सहित प्रमुदै है ॥२०॥ दोहा। । दरव स्वगुनपरजायकरि, उतपत-चय,-धुव-जुत्त । रहत अनाहतरूप नित, यही स्वरूपास्तित्त ॥ २१ ॥ पर दरवनिके गुन २परज, तिनसों मिलती नाहिं ।। निज स्वभावसत्ताविपैं, प्रनमन सदा कराहिं ॥ २२ ॥ (५) गाथा-९७ सादृश्य-अस्तित्वका कथन । मनहरण। नाना परकार यहां लच्छनके भेद राजै, ___ तामें एक सत सर्व दर्वमाहिं व्याप है । ऐसे सरवज्ञ वस्तुको स्वभाव धर्म कह्यो, ___ जो सरव दर्वको सदृशकरि थापे है ॥ जैसे वृच्छ जातिकी सदृश और सत्ता और, __ लच्छन विशेषकरि जुदी-जुदी तापै है । मुख्य मौन द्वारतें अदोष वन्द सर्व सधै, सामान्य विशेष धर्मधारी दर्व आपै है:॥ २३ ॥ दोहा। . सहजस्वरूपास्तित्वकरि, जुदे-जुदे सब दर्व । निज-निज गुन लच्छन धरै, है विचित्र गति पर्व ॥ २४ ॥ अरु सादृश्यास्तित्वकरि, सब थिर थपन अबाध । सत लच्छनके गहनतें, यही एक निरुपाध ॥२५॥ १. स्वरूपास्तित्व । २. पर्याय । .
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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