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कविवर वृन्दावन विरचित
लोकमें विलोकते सुखी समान भासते,
जिथैव जोंक रोगके विकारि रक्तको गहै । चाह दाहसों दहै न सामभावको लहै,
निजातमीक धर्मको तहां नहीं संजोग है ॥ ८ ॥ (६) गाथा ७४ पुण्य तृप्णा-दुःखकारी है।
कवित्त (३१ मात्रा) जो निहचै करि शुभपयोग , उपजत विविध पुण्यकी रास । । स्वर्गवर्गमें देवनिके वा, भवनत्रिकमें प्रगट प्रकास ॥ । तहाँ तिन्हें तृष्णानल वाढत, पाय भोग-घृत आहुति ग्रास । । जातै वृन्द सुधा-समरस विन, कबहुँ न मिटत जीवकी प्यास ॥९॥ __ (७) गाथा ७५ पुण्यमें तृष्णा बीज वृद्धिको
प्राप्त होते हैं।
___ मनहरण । देवनिको आदि लै जितेक जीवराशि ते ते,
विषैसुख आयुपरजंत सब चाहें हैं। . वहुरि सो भोगनिको बार वार भोगत हैं,
तिशना तरंग तिन्हैं उठत अथाहैं हैं ॥ आगामीक भोगनिकी चाह दुख दाह बढ़ी,
तासुकी सदैव पीर भरी उर माहैं हैं। जथा जोंक रकत विकारको तब लों गहै,
जौलों शठ प्राणांतदशाको आय गाहैं हैं ॥१०॥
१. यथा एव = जैसे ही। २. साम्यभाव = समता।