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________________ ६२ ] कविवर वृन्दावन विरचित और जो अकेले निज ज्ञानहीतें जानें जीव, सोइ है प्रतच्छ ज्ञान साधित प्रमानते । जातें यह परकी सहाय विन होत वृन्द, ___ अतिंद्रिय आनंदको कंद अमलानते ॥ २२ ॥ (७) गाथा-५९ अब प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक सुख दिखाते हैं। मनहरण । ऐसो ज्ञानहीको 'सुख' नाम जिनराज कह्यो, जौन ज्ञान आपने सुभावहीसों जगा है । निरावर्नताई सरवंग नामें आई औ जु, अनंते पदारथमें फैलि जगमगा है ॥ विमल सरूप है अभंग सरवंग जाको, जामें अवग्रहादि क्रियाको क्रम भगा है । सोई है प्रतच्छ ज्ञान अतिंद्री अनाकुलित, याहीतै अतिंद्रियसुख याको नाम पगा है ॥ २३ ॥ (८) गाथा-६० अब केवलज्ञानको भी परिणामके द्वारा दुःख होगा ? समाधान मत्तगयन्द । १ केवलनाम जो ज्ञान कहावत, है सुखरूप निराकुल सोई । हैं ज्ञायकरूप वही परिनाम, न खेद कहूं तिन्हिके मधि होई ।। ई खेदको कारण घातिय कर्म, सो मूल नाश भयो मल धोई । १ यात अतिन्द्रिय ज्ञान सोई, सुख है निहचै नहिं संशय कोई ॥ २४ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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