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प्रवचनसार
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सर्व ही अकाशतें शबद सदा चाहियत, गुनी गुन तजे कैसे बड़ो ही अचंभी है ॥ ३० ॥
दोहा । तात शवद प्रतन्छ है, पुद्गलको परजाय । खंध जोगते उपजत, वरन अवरन सुभाय ॥ ३१ ।
प्रश्न
पुदगलकी पराजय तुम, शबद कही सो ठीक । श्रवन हि ताकों गहत है, यही सनातन लीक ॥ ३२ ॥
और चार इन्द्रीनि करि, क्यों नहिं लखियै ताहि । मूरतीक तो सब गहें; याको करो निबाह ॥ ३३ ॥
उत्तरपांचो इन्द्रिनिके विषय, जुदे कहे श्रुतिमाहिं । तहां न एसो नेम की, सब सब विषय गहाहिं ॥ ३४ ।। नेम यही जानो प्रगट, निज-निज विषयनि अच्छ । गहन करहिं नहिं अपरके, विषय गहहिं परतच्छ ॥ ३५ ॥ ताहीत वह श्रवनको, शबद विषय दिढ़ जान । श्रवन हि ताको गहत है, और न गहत निदान ॥ ३६॥
प्रश्न-छप्पय । इहां प्रश्न कोउ करत, गंध गुन नीरमाहिं नहिं । ताहीत नाशिका नाहि, . संग्रहत तासुकहि ॥