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पीठिका
मूलप्रन्य अनुसार जो, भाषा तौ उपमा सांची फवै, "सोना
वनं और
प्रबंध । मुगंध " ॥ ६३ ॥
चौपाई।
मैं तो बहुत जतन चित गन्दी । रचिह्नों छंद जिनागन शाली। उप प्रमादतें लन्नि नहुँ दूषन । शोधि शुद्ध कीजे गुनभूपन ॥ ६४
दोहा ।
सज्जन चाल मगल सम, औगुन तज गुन लेत । 'शारदवाहन वारि तज, ज्यों पयपान करेत ॥ ६५ ॥
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पट्पद ।
जब लगि वन्तु विचार करत, कवि काव्य करनहित । । तब लगि विषयविकार कत, शुभध्यान म्हत चित ॥
ऐसे निजहित जान, बहुरि जब जगमें व्यापत । तव जे वाचहिं सुनहिं, तिन्हें है झन पगपत ॥ यों निज परको हित हंत लस्त्रि, वृन्दावन उद्यम करत । परमागम प्रवचनसारकी, छंदवद्ध टीचा घरत ॥६६॥
प्रवचनसारग्रन्यस्तुति ।
नय नय अनेकान्त दुतिधार । पय पय सुपरवोष करतार । ___ लय लय करत 'मुबारस धार । जय जय नो श्रीप्रवचनसार ॥ ६७॥
१. हंस। २ दूसरी प्रतिमें 'समानृनु' पाठ है।
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