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________________ प्रवचनसार [ १९७ (२७) गाथा-२२७ युक्ताहार विहारी साक्षात् अनाहार विहारी ही है। जाको चिनमूरत सुभावहीसों काहू काल, काहू परदर्वको न गहै सरधानसों । यही ताके अंतरमें अनसन शुद्ध तप, निहचै विराजै वृन्द परम प्रमानसों ॥ जोग निरदोष अन्न भोजन करत तऊ, अनाहारी जानो ताको आतमीक ज्ञानसों । तैसे ही समितिजुत करत विहार ताहि, ___अविहारी मानो महामुनि परधान सो ॥१२८॥ (२८) गाथा-२२८ मुनिके युक्ताहारित्व कैसे सिद्ध होता है ? मुनि महाराजजूके केवल शरीरमात्र, एक परिग्रह यह ताको न निषेध है। ताहूसों ममत्त छाँरि वीतरागभाव धारि, अजोग अहारादिको त्यागें ज्यों अमेध है । नाना तपमाहिं ताहि नितही लगाये हैं, आतमशकतिको प्रकाशत अवेध है । सोई शिवसुन्दरी स्वयंवरी विधानमाहि, मुनि वर होय वृन्द 'राधावेध' वेध है ॥१२९॥ • (२९) गाथा-२२९ युक्ताहारका विस्तारसे वर्णन । एक बार ही अहार निश्चै मुनिराज करें, सोऊ पेट मेरै नाहिं ऊनोदरको गहै ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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