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[५] ऐसी ही गड़बड़ थी। जहाँ कविताके अनुप्रासादि गुणोंका कोई प्रतिबन्ध नहीं था, वहां उन्होंने शुद्ध शब्द पर ध्यान देकर आकारादिका प्रयोग नहीं किया है। सर्वत्र इच्छानुसार ही किया है। वर्तमान लेखन शैलीसे विरुद्ध होनेके कारण हमने ऐसे स्थानोंमें जहाँ कि तुकान्त अनुप्रासादिकी कोई हानि नहीं होती थी, शुद्ध शब्दोंके अनुसार ही शकार सकारका संशोधन कर दिया है। तें ते के के आदिके संशोधनमें कहीं कहीं भूल प्रतिके समान ही विकल्प हो गये है, तो भी जहां तक हमसे बन पड़ा है आदिसे अन्त तक एक ही प्रकारसे लिखा है। ___ कविवरकी भापामें जहां-तहां पुलिंगके स्थानमें स्त्रीलिंगका प्रयोग किया गया है। सो भी ऐसी जगह जहां हमारे पाठकोंको अटपटा जान पड़ेगा। हमारे कई मित्रोंका कथन था कि, इसका संशोधन कर देना चाहिये। परन्तु हमने इसे अच्छा न समझा। ऐसा करनेसे ग्रन्थकर्ताके देशकी तथा समयकी भाषाका क्या रूप था, इसके जाननेका साधन नष्ट हो जाता है। संशोधन' कर्ताका यही कार्य है कि, वह दो-चार प्रतियों परसे लेखकोंकी भूलसे जो मशुद्धियाँ हो गई हैं, उनका संशोधन कर देवे। यह नहीं कि, मूल कर्ताकी कृतिमें ही फेरफार कर डाले। खेद है कि, आजकल बहुतसे ग्रन्थप्रकाशक इस नियम पर विलकुल ध्यान नहीं देते हैं।
पहले यह ग्रन्थ मूल, संस्कृत टीका और भापा-चचनिकाके साथ छपनेके लिये श्री रायचन्द जैन शास्त्रमालाके प्रवन्धकर्ताओंने लिखवाया था। परन्तु जब टीका तैयार न हो सकी और शास्त्रमालाके दूसरे संचालककी इच्छा इसे प्रकाशित करनेकी न दिखी, तब इसे पृथक् छपानेका प्रवन्ध किया गया। केवल गाथा और उनकी संस्कृत छाया देनेसे संस्कृत नहीं जाननेवालेको कुछ लाभ