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कविवर वृन्दावन विरचित
(७)
___ सत्यचारित्र । हैं निहचै निज सुभावमें थिरता, तिहि चरित कहँ धरम कहै । है सोई पर्म धर्म समतामय, यो सर्वज्ञ कृगल महे ॥ ६ जामें मोह क्षोभ नहिं व्यापत, चिद्विल्यास दुति वृन्द गहै । सो परिनामसहित आतमको, शाम नाम अमिराम अहे ॥१८॥
दोहा । चिदानन्द चिद्रूपको, परम धरम शमभाव । जामें मोह न राग रिस, अमल अचल थिर भाव ॥ १९ ।। सोई विमल चरित्र है, शुद्ध सिद्धपदहेत । शामसरूपी आतमा, भविक वृन्द लखि लेत ॥ २० ॥
(८) आत्मा ही चारित्र है।
सवैया छंद । है जब जिहि परनति दरव परनमत, तव तासों तन्मय तिहि काल । हु श्रीसर्वज्ञकथित यह मारग, मथित गुरु गनधर गुनमाल || हैं तातें धरम स्वभाव परिनवत, आतमहका धरम सम्हाल । धरमी घरम एकता नयकी, इहां अपेक्षा वृन्द विशाल ।२१ ॥
दोहा। है वीतराग चारित्र है, परम धरम निजरूप । हैं ताके धारत जीवको, धर्म कह्यो जिनम्प ।। २२ ॥