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________________ २२२ ] फविवर वृन्दावन विरचित + STATISARLASTUDIOMETRICSNEHALAalusliSoutOVATLATIONA तो सो मुनि न होय यह जानो, है वह श्रावक मृविधि समेत ! नाते वह अरंभजुत माग्ग, श्रावक धामनाहि छवि देत ॥३०॥ कुण्डलिया। ताते जे कई मुमुनि. गहें सराग चरित्त । ते परमुनिको खेद लखि, ठानी गवृत ॥ टानी वैयावृत्त तहां, निज संजम गखो । परकी करो सहायः जथा जिनश्रुतिमें भाखो । पटकाया मविरोध. क्रिया गृहनध्य गर्ने । मुनिको मुपद वचाय, उचित पर हिन कृन तात ॥३॥ (७) गाथा-२५१ किनके प्रति उपकारकी प्रवृत्ति योग्य है ? और फिनके प्रति नहीं: माधवी। जिनशासनके अनुसार घरें व्रत, जे नुनिराय तथा गृहवासी । . दिनको उपकार करो सु दया घरि, त्यागि हिये फनकी अभिलासी ॥ है इहि भांति किये जदि जो तुमको शुभकर्म व कछु तो नहिं हांसी । है. यह रीति सराग चरित्र विपैं, है सनातन वृन्द जिनिंद प्रकासी ॥३२॥ (८) गाथा-२५२ शुमोपयोगी श्रमणको किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किम समय नहीं : मनहरण । कहूँ अाहू मुनिको जो रोगसों विचित देखो, तथा भूख प्यास करि देखो जो दुचित है । तथा काहू भांतिकी परीपड़के जोगसेती, कायमें कलेश काहू मुनिके कुचित है ॥ MEENA
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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