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________________ प्रवचनसार [ २२३ तहाँ तुम आफ्नी शकतिके प्रमान मुनि, ताकी वैयावृत्ति आदि करो जो उचित है ।। जात वह साध निरुपाध होय वृन्दावन, ___ सहजसमाधमें अराधै जो सुचित है ॥ ३३ ॥ (९) गाथा-२५३ शुभोपयोगी श्रमण है वह लोगोंके साथ बातचीतको प्रवृत्ति किस निमित्तसे करे यो योग्य है। रोगी मुनि अथवा अचारज सुपूज गुरु, तथा बाल वृद्ध मुनि ऐसे मेद वरनी । तिनकी सहाय सेवा आदि हेत मुनिनिको, लौकिक जनहूसों सुसंभाषन करनी ॥ जामें तिन साधनके खेदको विछेद होय, ऐसे शुभ भावनिसों वानीको उचरनी । सराग आनन्दमें अनिंद वृन्द विधि यह, सुपरोपकारी बुधि भवोदधितरनी ॥ ३४ ॥ (१०) गाथा-२५४ शुभका मौण-मुख्य विभाग । यह जो प्रशस्त रागरूप आचरन कहो, वैयावृत्त आदि सो तो बड़ोई धरम है । मुनिमण्डलीमें यह गौनरूप राजे जाते, तहां रागभाव मंद रहत नरम ः है । श्रावक पुनीतके बड़ोई धरमानुराग, तातें तहां. उतकिष्ट मुख्यता परम है । WateCuTHARASTRATORNARENERAERARIERIMENSIDHARTAIRZAANARTARANARASINusintARRORRECRUARYASRCED १. चित्स्वरूप आत्मा ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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