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________________ प्रवचनसार [२२१ दोहा । शुद्धपयोगीके परम, वीतरागता भाव । तातै तिनके यह क्रिया, होत नाहिं दरसाव ॥ २४ ॥ (५) गाथा-२४९ यह सभी प्रवृत्तियाँ शुभोग्योगियोंके ही होती है। मत्तगयन्द । जामहँ जीव विरोध लहै नहि, ताविधिसों नितही विधि ज्ञाता । चारि प्रकारके संघ मुनीशको, ताको करै उपकार विख्याता || • आपने संजमको रखिके, निहचे सबके सुखदायक ताता । ' या विधि जो वरतै मुनि सो, परधान सरागदशामहँ भ्राता ॥२५॥ दोहा । श्रावक अरु पुनि श्राविका, मुनि अरजिका प्रमान । येई चारों संघके, स्वामी सुमुनि सयान । २६ ॥ शुद्धातम अनुभूतिके, ये साधक चहुसंग । ताते नित रच्छा करहिं, इनकी सुमुनि उमंग । २७ ।। वैयावृत्तादिक क्रिया, जा विधि नै उदार । ताही विधिसों करत हैं, ते सराग अनगार ।। २८ ।। हिंसा दोष बचायके, अपनो संजम राख । संघानुग्रहमें रहे, सो प्रधान मुनि भाख ॥ २९ ।। (६) गाथा-२५० मुनित्व उचित प्रवृत्ति विरोधी नहीं, किन्तु अनुचित प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये । कवित्त-मात्रिक । जो मुनि और मुनिनिके कारन, वैयावरत करनके हेत । छहों कायको बाधक हो करि, उद्यमवान होय वरतेत ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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