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प्रवचनसार
सब
निज निज भावके दख सब करता हैं,
परके सुभावको न करै कोऊ मानियो । यह तो प्रतच्छ भेद ज्ञानतें विलच्छ देखो,
सवै निज कारजके करता प्रमानियो । दरव करम पुदगल पिंड ताते याको,
करतार पुग्गल दरव सरधानियौ ॥ १११ (३१) गाथा-१२३ तीन प्रकारकी चेतना ।
सवैया (३१ मात्रा) आतम निज चेतन सुभाव करि, प्रनवतु है निहचै निरधार । सो चेतनता तीन भाँति है, यो वरनी जिनचंद उदार ॥ ज्ञानचेतना प्रथम वखानी, दुतिय करमचेतना विचार ।। त्रितियकरमफलचेतनता है, वृन्दावन ऐसे उद्धार ॥ ११२ ॥
(३२) गाथा-१२४ उनका स्वरूप ।
मनहरण । जीवादिक सुपर पदारथको भेदजुत,
तदाकार एक काल जानै जो प्रतच्छ है । सोई ज्ञानचेतना कहावत अमलरूप,
वृन्दावन तिहूँकाल विशद विलच्छ है ॥ जीवके विभावको अरंभ कर्मचेतना है,
दर्वकर्मद्वार जामें भेदनको गच्छ है । सुख-दुखरूप कर्मफल अनुभवै जीव,
कर्मफलचेतना सो भाषी श्रुति स्वच्छ है ।। ११३ ॥