SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ ] कविवर वृन्दावन विरचित मतांतर । दोहा। केई मतवाले कहैं, प्रथम अमल थो जीव । माया जडसों मलिन है, चहुँगति भमत सदीव ।। १०६ ॥ प्रगट असंभव बात यह, शुद्ध अमल चिद्रूप । क्योंकरि बंध दशा लहै, परै केम भवकूप । १०७ ।। विमलभाव तब बंधको, कारन भयो प्रतच्छ । मोच्छ अमलता तब कहो, कैसे सधै विलच्छ ॥ १०८ ॥ गाथा-१२२ अव परमार्थसे आत्माके द्रव्य कर्मका __ अकर्तृत्व । (३०) मनहरण । परिनामरूप स्वयमेव आप आतमा है, जातै परिनाम परिनामीमें न भेद है। सोई परिनामरूप क्रिया जीवमयी होत, ___ आपनी क्रियात तनमयता अछेद है ॥ जीवकी जो क्रिया ताको भावकर्म नाम कह्यौ, ___याको करतार जीव निहचै निवेद है ॥ तात दर्व करमको आतमा अकरता है । ___याको करतार पुदगल कर्म वेद है । १०९॥ प्रश्न-दोहा । भावकरम आतम करै, यह हम जानी ठीक । दरव करम अबको करै, यह संदेह अधीक ॥११० ॥ उत्तर-मनहरण । जैसे भाव कर्मको करैया जीव राजत है, पुग्गल न ताको करै कभी यों पिछानियो ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy