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________________ प्रवचनसार [ १११ N ताही पूरदवंध करि, होहि विभाव विकार । ताकरि नूतन बँधत है, यहाँ न दोष लगार ॥ ९९ ।। जगदागमहूते यही, सिद्ध होत सुखधाम । जो है करम निमित्त विनु, रागादिक परिनाम ॥ १० ॥ तो, वह सहज सुभाव है, मिटै न कवहूं येव । तारौं दरवकरम निमित, प्रथम गही गुरुदेव ।। १०१ ॥ दरवकरम पुदगलमई, पुदगल करता तास । भावकरम आतम करै, यह निहचै परकास ॥१०२ ।। पुनः प्रश्न । तुम भापत हौ हे सुगुरु, 'जीवकरमसंजोग' । सो क्या प्रथम पृथक हुते, पाछे भयो नियोग ॥ १०३ ॥ जासु नाम 'संजोग' है, ताको तो यह अर्थ । जुदी वस्तु मिलि एक है, कीजे अर्थ समर्थ ॥ १०४ ।। उत्तर-मनहरन । जैसे तिलीमाहिं तैल आगि है पखानमाहिं, छीरमाहिं नीर हेम खानिमें समल है । इन्हें जब कारन” जुदे होत देखें तब, ___जान जो मिलापहमें जुदे ही जुगल है ॥ तैसेही अनादि पुग्गलीक दर्व करमसों, जीवको संबंध लसे एक थल रल है । मेदज्ञान आदि शिव साधनते न्यारो होत, ऐसे निखाध संग सधत विमल है ।। १०५ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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