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________________ प्रवचनसार [२३१ दोहा । लौकिक जनमन मोदके, जेते विविध विधान । तिनमें वरतै लगनजुत, सो लौकिक मुनि जान ॥ ६१ ।। ताकी संगतिको तजहिं, उत्तम मुनि परवीन । जात संगति दोषत, सज्जन होय मलीन ॥६२ ॥ (२६) गाथा-२७० सत्संग (विधेय है) जो करने योग्य है । छप्पय । तिस कारन मुनिको कुसंग, तजिक यह चहियत । निज गुनके समतूल होहि, के अधिक सु महियत ? ॥ तिन मुनिकी सतसंगमाहि, तुम बसौ निरंतर । जो सब दुखते मुक्ति दशा, चाहो अमिअंतर ।। समगुन मुनिकी सतसंगरौं, होय सुगुनरच्छा परम । गुनवृद्ध मुनिनिकी संगत, बढ़े सुगुन आतमधरम ॥ ६३ ।। दोहा । जलमें शीतल गुन निरखि, ताकी रच्छाहेत । शीत भौनके कौनमें, राखहिं सुबुध सचेत ॥६४॥ यह समान गुनकी सुखद, संगति भाषी मीत । अब भाषों गुन अधिकके, सतसंगतिकी रीत ॥६५॥ जैसे बरफ कपूर पुनि, शीत आदि संजोग । होत नीर गुन शीत अति, यह गुन अधिक नियोग |॥ ६६ ।। ___ काव्य ( माया २४) ताते जे मुनि महामोख, -सुखके अमिलाखी । तिनको यह उपदेश, सुखद है अतिकी साखी ।।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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