SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० ] कविवर वृन्दावन विरचित दोहा । विनय भगत तो उचित है, बड़े गुनिनिक्री वृन्द । हीन गुनिनिको वंदते. चारित होत निकंद ॥ ५५ ॥ (२४) गाथा-२६८ असत्संगका निपेध । कवित्त मात्रिका जद्दिप जिनसिद्धांत सूत्रकरि, जानत है निहचै सब वस्त । ६ अरु कषाय उपशमकरि जो मुनि, करत तपस्या अधिक प्रशस्त ॥ जो न तजै लौकिक जनसंगति, तो न होय वह मुनि परशस्त । १ संगरंगते भंग होय व्रत, यात तजिय कुसंगत रस्त ॥५६॥ दोहा । जैसे अगिनि मिलापते, शीतल जल है गर्म । तैसे पाय कुसंगको, होय मलिन शुभ कर्म ॥ ५७ ॥ ता” तजो कुसंग मुनि, जो चाहो कुशलात । बसो सुसंगत सुमुनिके, जुतविवेक दिनरात ॥५८ ॥ कही कुसंगतकी कथा, बहुत भाँति श्रुतिमाहिं । विषम गरल सम त्यागि तिहि, चलो सुसंगति छाहिं ॥५९ ॥ (२५) गाथा-२६९ लौकिकजनका लक्षण । मिला। निरग्रंथ महाव्रतधारक हो करि, जो इहि भाँति करै करनी । है वरतै इस लौकिक रीतिविपैं, करै वैदक जोतिक मंतरनी ॥ है वह लौकिक नाम मुनी कहिये, परिभ्रष्ट दशा तिसकी वरनी । १ तपसंजमसंजुत होय तऊ, न तरै भवसागर दुस्तरनी ।.६०॥ है १. विष । २. वैद्यक । ३. ज्योतिष । ४. मंत्रविद्या ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy