SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ ] फविवर वृन्दावन विरचित (१४) गाथा-१५९ अशुद्धोपयोग (शुभ-अशुम) जो कि परद्रव्य के संयोगके कारण हैं, उनके विनाशका अभ्यास बताते हैं। मत्तगयन्द । मैं निज ज्ञानसरूप चिदातम, ताहि सुध्यावत हौं भ्रम टारी । भाव शुभाशुभ बंधके करन, तातै तिन्हैं तजि दीनों विचारी ॥ होय मधस्थ विराजत हों, परदर्व वि. ममता परिहारी । सो सुख क्यों मुखसों बरनौं, जो चखै सो लखै यह वात हमारी ॥२५॥ दोहा । . तातै यह उपदेश अव, सुनो भविक बुधिवान । ___ उदिम करि जिन वचन सुनि, ल्यो निजरूप पिछान ॥२६॥ ताहीको अनुभव करो, तजि प्रमाद उनमाद । देखो तो तिहि अनुभवत, कैसो उपजत स्वाद ॥२७॥ जाके स्वादत ही तुम्हें, मिले अतुल सुख पर्म । पुनि शिवपुरमें जाहुगे, परिहरि अरि वसु कर्म ॥२८॥ यही शुद्ध उपयोग है, जीवन-मोच्छसरूप । यही मोखमग धर्म यहि, यहि शुद्धचिद्रूप ॥२९॥ । (१५) गाथा-१६० शरीरादि परद्रव्यके प्रति भी मध्यस्थता । मनहरण । मैं जो हों शुद्ध चिनमूरत दरव सो, त्रिकालमें त्रिजोगरूप भयो नाहि काही । १. उद्यम ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy