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________________ प्रवचनसार [ १४५ ___ तव शुभ आयु नाम गोत पुन्यवर्गनाको, कर्मपिंड बँधै यह सहज नियोग है ॥ अथवा मिथ्यातविर्षे अव्रत कषायरूप, __ अशुभोपयोग भये पापको संजोग है । दोऊके अभावतें विशुद्ध उपयोग वृन्द, ___ तहां बंध खंडके अखंड. सुख भोग है ॥२२॥ (१२) गाथा-१५७ शुभोपयोगका कथन । मतगयन्द । जो जन श्री जिनदेवको जानत, प्रीतिसों वृन्द तहाँ लब लावै । सिद्धनिको निज ज्ञानतै देखिकै, ध्यापक होयके ध्यानमें ध्यावै ॥ । औ 'अनगार गुरूनिमें भक्ति, दया सब जीवनिमाहिं दिहावै । ताकहँ श्रीगुरुदेव वखानत, सो 'शुभरूपपयोग कहावै ॥२३॥ (१३) गाथा-१५८ अशुभोपयोग । मनहरण । इंद्रिनिके विषै और क्रोधादि कषायनिमें, जाको परिनाम अवगाढागाढ़ रुखिया । मिथ्याशास्त्र सुनै सदा चित्तमें कुभाव गुने, दुष्ट संग रंगको उमंग रस चुखिया । जीवनिके • घातको जतन करत नित, कुमारग चलिमें उप्रमुख मुखिया । ऐसो उपयोग ' सोई अशुभ कहावत है, जाके उरवसै वह कैसे होय मुखिया ॥२४॥ १. दिगम्बर । २. शुभोपयोग ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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