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________________ ८२ ] कविवर वृन्दावन विरचित जैसे वृच्छजातितै समान सर्व वृच्छ और, आमनिंब आदितै विशेषता अगाध है ॥ तैसें सत्ता भावकरि सव्व दन अस्ति औ, विशेष सत्ता लियें सब जुदे निरुपाध है । साधु होय याको जो न निह प्रतीत करे, ताको शुद्ध धर्मको न लाभ सो न साध है ॥५३॥ . नरेन्द्र । यों सामान्य-विशेष-भावजुत, दरवनिको नहिं जाने । स्वपरभेदविज्ञान विना तब, निज निधि क्यों पहिचान ॥ तो सम्यक्त भाव विनु केवल, दरवलिंगको धारी । तप संजमकरि खेदित हो है, बरै नाहिं शिवनारी ॥५४॥ मनहरण। जैसें रजसोधा रज सोधत सुवर्न हेत, जो न ताहि सोनाको पिछांन उरमाहीं है । तौ तो खेद वृथा तैसें यहाँ भेदज्ञान विनु, सुपर पिछा. मुनिमुद्रा जे धराहीं है ।। तप संजमादिक कलेश करै कायकरि, सो तो शुद्ध आतमीक धर्म न लहाही है । ताके भावरूप मुनिमुद्रा नाहिं वृन्दावन, ऐसे कुन्दकुन्द स्वामी विदित कहा ही है ॥ ५५ ॥ चौपाई। प्रथमाह श्रीगुरुदेव कहा था। १"उवसंपयामी सम्म" गाथा । ताकरि साम्यभाव शिव कारन । यह निहचै कीन्हों उर धारन ॥५६॥ ई १-पांचवीं गाथा। MMMMM
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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