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प्रवचनसार
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तामें निज आतमके गुन निजमाहि जानो,
परगुन भिन्न जानो भर्मभाव हरिकै ।। नाना दीप जोत एक भौनमें भरे हे पे,
नियारे सर्व तैसे सर्व दर्व मिन्न भरिक । जो तू मोह नासिके अबाध सुख चाहै तौ तो, ___ आपहीमें आप देख ऐसे ध्यान धरिकै ॥ १७ ॥
दोहा। दरवनिमें दो भांतिके, गुन वरतंत सदीव । हे सामान्य स्वरूप इक, एक विशेष अतीव ॥४८॥ तामें आतमरसिक जन, गुन विशेष उरधार । द्रव्यनिको निरधार करि, सरघा धेरै उदार ॥ ४९ ।। एकक्षेत्र अवगाहमें, हैं पड्दव्य अनाद । निज निज सत्त को धेरै, जुदे जुदे मरजाद ॥ ५० ॥ ज्यों का त्यों जानों तिन्हैं, तामें सों निजरूप । मिन्न लवी सब दर्वत, चिदानंद चिद्रूप ॥५१॥ ताके अनुभवरंगमें, पगो 'वृन्द' सरवंग । मोह महारिपु तुरत तब, होय मूलतें भंग ॥ ५२ ॥ (२३) गाथा-९१ जिन कथित अर्थोकी श्रद्धा विना
धर्मलाभ नहीं होता।
मनहरण । सत्ता सनबंध दोय भांति है दरवमाहिं,
सामान्य विशेष जो कुतर्कसों अबाध है ।