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________________ ८० 1 कविवर वृन्दावन विरचित है (२०) गाथा-८८ मोहक्षयका उपदेशकी प्राप्ति तो है किन्तु पुरुषार्थ अर्थ क्रियाकारी होनेसे पुरुषार्थ करते हैं। पटपद । जो जन श्रीजिनराजकथित, उपदेश पाय करि । मोह राग अरु द्वेष, इन्हें घात उपाय धरि ॥ सो जन उद्यमवान, बहुत थोरे दिनमाहीं । सकल दुःखसों मुक्त, होय भवि शिवपुर जाहीं ।। यातें जिनशासन कथनका, सार सुधारस पीजिये । वृन्दावन ज्ञानानंदपद, ज्यों उतावली लीजिये ॥ १५ ॥ (२१) गाथा-८९ भेदज्ञानसे ही मोहका क्षय है अतः स्व-पर विभागकी सिद्धि अर्थ प्रयत्न । मनहरण । आतमा दरव ही है ज्ञानरूप सदाकाल, __ज्ञान आतमीक यह आतमा ही आप है । ऐसी एकताई ज्ञान आतमकी वृन्दावन, ___ताको जो प्रतीति प्रीति करै जपै जाप है ॥ तथा पुग्गलादिको सुभाव भलीभांति जाने, ___ जान भेद जैसे जीव कर्मको मिलाप है । सोई भेदज्ञानी निजरूपमें सुथिर होय, ___ मोहको विनासै जात नसै तीनों ताप है ॥ ४६॥ (२२) गाथा-९० यह आगमानुसार करने योग्य है। तातें जिन आगमतें द्रव्यको विशेष गुन, ____ जथारथ जानो भले भेदज्ञान करिकै । .
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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