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________________ प्रवचनसार है फिर कहि सुगुरु सुहित अभिलाषा ।"चारित्त खलुधम्मो" भाषा । जोई सामभाव थिर पर्म । शुद्धपयोगरूप सो धर्म ॥५७॥ है ६ पुनि गुरुदेव कही करि करना। "परिणमदि जेण दव्य' विवरुना । हैं ताकरि सामभाव सोई आतम । अति एकतामई परमातम ॥५८॥ हैं फिर गुरु दीनदयाल उदारा । ४'धम्मेण परिणदप्पा' उचारा । ताकरि सिद्ध कियो पद पर्म । साम्य शुद्ध उपयोग सुधर्म ॥५९।। ६ इहि विधि शुद्ध धरम परशंसा | शुभ औ अशुभपयोग विध्वंसा । हैं परम अतिन्द्री ज्ञानानंदा। निज स्वरूप पायो निर्वदा ॥६०॥ हूँ अति हि अनाकुल अचल महा है। शुद्धधर्म निजरूप गहा है। तहाँ अकंप जोति निज जागै । वृन्दावन तासों अनुरागै ॥६१॥ (२४) गाथा-९२ आगमकुशल, निहतमोहदृष्टि, वीतराग चारित्रवतको धर्म कहा है। मनहरण । जाने मोहदृष्टिको विशिष्टपने घातकरि, पायो निजरूप भयो सांचो समकिती है । सरवज्ञभाषित सिद्धांतमें प्रवीन अति, जथारथ ज्ञान जाके हियेमें जगती है ॥ वीतराग चारितमें सदा सावधान रहै, सोई महामुनि शिवसाधक सुमती है । ताही भावलिंगी मुनिराजको धरम नाम, विशेषपनेंतें कयो सोई शुद्ध जती है ।। ६२ ।। २-सातवी गाथा । ३-आठवीं गाथा । ४-ग्यारहवीं गाथा ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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