SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ ] कविवर वृन्दावन विरचित बहुरि गुननिकी प्रशंसा कीजे विनयसों, हाथ जोरे रहिये प्रनाम कीजै ठहिकै । मुनिमहागज वा गुनाधिक पुरुपनिसों, ___ याही भाँति कीजे श्रुतिसीखरीति गहिकै ॥४८॥ (१६) गाथा-२६३ श्रमणाभायोंके प्रति सर्व प्रवृत्तियोंका निषेध ही है। छप्पय । जे परमागम अर्थमाहिं, परवीन महामुनि । अरु संजम तप ज्ञान आदि, परिपूरित हैं पुनि ॥ तिनहिं आवतौ देखि, तबहि मुनिहूकहँ चहिये । खड़े होय सनमुख सुजाय, आदर निरबहिये ॥ सेवा विधि अरु परिनाम विधि, दोनों करिवो जोग है । है उत्तम मुनिमगरीति यह, जहँ सुभावसुखभोग है ॥४९॥ दोहा । दरवित जे मुनि भेष धरि, ते हैं श्रमनाभास । तिनकी विनयादिक क्रिया, जोग नहीं है भास ॥५०॥ (२०) गाथा-२६४ श्रमणाभास । रूपक कवित्त । संजम तप सिद्धांत सूत्र, इनहू करि जो मुनि है संजुक्त । हैं जो जिनकथित प्रधान आतमा, सुपरप्रकाशकते वर शुक्त ॥ १ तासु सहित जे सकल पदारथ, नहिं सरदहै जथा जिनउक्त । ६ तब सो मुनि न होय यह जानो, है वह श्रमनाभास अजुक्त ॥११॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy