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________________ प्रवचनसार [ २२७ (१६) गाथा-२६, उसे ही विशेष समझाते हैं। मनहरण । अशुभोपयोग जो विमोह रागदोष भाव, तासते रहित होहि मुनी निरग्रंथ है । शुद्ध उपयोगकी दशामें केई रमैं केई, शुभ उपयोगी मथें विवहार मंभ है । तेई भव्य जीवनिको तारें हैं भवोदधितै, आपु शिवरूप पुन्यरूप पूज पंथ है । तिनहीकी भक्तिते भविक शुभथान लहैं, ऐसे चित चेत वृन्द भापी जैन्ग्रंथ है ॥४६॥ (१७) गाथा-२६१ यथार्थ कारण-कार्यकी उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य विशेषतया करने योग्य है। माधवी । तिहि कारन गुन उत्तपभाजन, श्रीमुनिको जव आवत देखो ।। तब ही रठि वृन्द खड़े रहिकै, पद वंदि पदांबुजकी दिशि पेखो ॥ गुनवृद्ध विशेष नेकी इहि भांति, सदी करो विनयादि विशेखो । उपदेश जिनेशको जान यही, विधिसों वरतो चहुसंघ सरेखो ॥४७॥ (१८) गाथा-२६२ श्रमों के योग्य प्रवृत्तिका निषेध नहीं है। मनहरण । आवत विलोकि खड़े होय सनमुख जाय, आदरसों आइये आइये ऐसे कहिक । अंगीकार करिके सु सेवा कीजै वृन्दावन, और अन्न पानादिसों पोखिये उमहिकै ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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