SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ २७ अर्थ परजायमें कि विजन परजमाहिं, अथवा विभावकै स्वभाव पर्जपाल है ॥ याहीके अधार निराधार निज सत्ताधार, निजाधार निराबाध द्रव्य गुनमाल है। कुन्दकुन्द इन्दुके वचन अमी वृन्द पियो, __जाको इन्द-चन्द-वृंद वंदत त्रिकाल है ॥७० ॥ किरीट । जो जगमें सब वस्तु विराजत, सो उतपादरु व्यै ध्रुव धारक ।। हैं हैं परजाय सुभावमई कि विभाव कि अर्थ कि विंजन कारक ॥ है है है इनही करके तिनकी, तिल्काल वि. सदभाव उदारक । है या विन द्रव्य सधै न किसी विधि, यों श्रुतिसिन्धु मथी गनधारक ।। ७१ ॥ मत्तगयन्द । है कुण्डलरूप भयो जब कंचन, कंकनता तब ही तज दीनों । १ ध्रौव्य दुहमहँ आपहि है, गुन गौरव पीत सचिकन लीनों ॥ हूँ त्यों सब द्रव्य सदा प्रनवै, परजाय विर्षे गुन संग धरीनो । है तीन विहीन नहीं कोउ वस्तु, यही उनको सदभाव प्रवीनो ॥७२॥ मनहरण । धरम अधरम अकाश काल चारों द्रव्य, सहज सुभाव , परजायमाहिं रहे हैं। . षटगुनी हानि वृद्धि करें समै समै माहिं, . . अगुरुलघुगुनके द्वार ऐसे कहै हैं. ॥ . गतिथिति अवकाश वर्तना गुन निवास, . __. चारोंमें यथोचित स्वसत्ताही को गहै हैं ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy