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कविवर वृन्दावन विरचित
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जीव पुदगलमें विराजें दोऊ परजाय, ___ विभाव तथा सुभाव जब जैसो लहै हैं ॥ ७३ ॥
दोहा । ज्यों मानुष तन त्यागिकै, उपजत सुरपुर जीव । दुहूँ दशामें आप ध्रुव, इमि तिहु सधत सदीव ॥ ७४ ।। अथवा सिद्धदशा विपैं, ऐसे साधी साध । समल दशा तजि अमल हुव, वह ध्रुव जीव अबाध ॥ ७५ ॥ अथवा ज्ञानादर्शमें दरसि रहै सब ज्ञेय । । ज्ञेयाकार सुज्ञान तहँ, होत प्रतच्छ प्रमेय ॥ ७६ ॥ तिन ज्ञेयनकी त्रिविध गति, जिह जिह भांति सुहोत ।। तिहि तिहि भांति सुज्ञान वह, प्रनवत सहज उदोत ॥ ७७ ॥ याही भांति प्ररूपना, सिद्ध दशाके महि । उतपतव्ययध्रुवक्री सधत, अनेकांतकी छांह ॥ ७८ ॥ षटगुनि हानिरु वृद्धिकी, जा विधि उठत तरंग । सहज सुभाविक भावमें, सोऊ सधत अभंग ॥ ७९ ॥ उपजन विनशन ध्रौव्यके, विना द्रव्य नहिं होय ।
साधी गुरु सिद्धान्तमें, वाधी तहाँ न कोय ॥ ८० ॥ प्रश्न-
शिखरिणी। कहो उत्पादादी त्रिविधिकर अस्तित्व तुमने । सुनी मैंने नीके उठत तब शंका. मुझ मने ॥
त्रिधा काहे भाषो, ध्रुवहि करिके क्यों नहिं कहो । ___ कहा यातें नाहीं सधत ? सब वस्तें मुनि महो ॥ ८१ ॥